एक दिन वो उनके पसंदीदा गायक किशोर कुमार का गाना गुनगुनाते हुए आए और बोले – “चलो, तुम्हें हिमाचल प्रदेश घुमा कर लाता हूँ”।
मैंने माँ की तरफ आश्चर्य से देखा जो सब्जी काटते-काटते अचानक ऐसे हक्का-बक्का होकर पिताजी को देख रही थी, मानों कहीं से भूकम्प आने की सूचना मिली हो।
मैं खुश होते हुए बोला – “वाह पिताजी, माँ का तो कई सालों से बड़ा मन था कही घूमने का”।
“सिर्फ़ तू और मैं जा रहे है” पिताजी ने मुस्कुराते हुए कहा।
“क्यों, माँ क्यों नहीं जाएगी?” मैंने कुछ नाराज़ होते हुए पूछा।
सौदा: मंजरी शुक्ला जी की हास्य कहानी
“अरे, तुझे पता नहीं है क्या, उनके घुटनों में कितना दर्द रहता है। वहाँ ठंड का मौसम होगा और उस पर से एक पहाड़ी से दूसरी पहाड़ी चढ़ना होगा । कैसे चलेगी वो बेचारी…”
मैं आश्चर्य से उनका मुंह देखे जा रहा था, जिस माँ के पैर में बिच्छु काट जाने पर भी डॉक्टर के यहाँ ना दिखाकर पिताजी ने घरेलू उपचार कर दिया था। आज उनके बारे में इतनी चिंता…
मेरा चेहरा देखते हुए वो खिसियानी हंसी हँसते हुए बोले – आजकल की महँगाई और साँप की तरह लम्बे-लम्बे डॉक्टर के बिल तो तो तुम देख ही रहे हो ना?”
माँ ने गुस्से के मारे सब्जी वहीँ पटकी और अंदर चली गई। मेरा भी मन हुआ कि कह दूँ, ठीक है माँ के बिना मैं भी नहीं जाऊंगा। पर २४ साल की उमर होने के बावजूद भी मैं आज तक घर के आसपास के मोहल्लों और स्कूल-कॉलेज के अलावा कहीं नहीं गया था। कम से कम दोस्तों को बताने के एक जगह तो लिए रहेगी और ये सोचता हुआ मैं माँ के पास जाकर खड़ा हो गया।
माँ ने मुझे देखते ही झटपट पल्लू से अपने आँसूं पोंछे और मुस्कुराने की कोशिश करते हुए कहने लगी – “तू जा या मैं जाऊं, एक ही बात है। मैं यहीं से बैठकर तेरी आँखों से सारा हिमाचल प्रदेश देख लूँगी।
मैं भावुक होकर मां के गले से लिपट कर बोला – “जब मैं नौकरी करूंगा तो तुझे घर में रहने ही नहीं दूंगा इतने वर्षों की सारी कसर पूरी हो जाएगी। माँ मुस्कुरा दी और अगले ही दिन मैं पिताजी के साथ हिमाचल प्रदेश के लिए निकल पड़ा। ऐसा लग रहा था जैसे कोई उम्रकैद का कैदी अचानक सलाखों के बाहर आ गया हो। सालों बाद मैंने तन के साथ साथ मन की खुली हवा में सांस ली थी।
मेरे पिताजी से पहले ही कह दिया था कि रास्ते में आप कोई कंजूसी नहीं दिखाएंगे। मैं जहां खाना चाहूंगा आप खिलाएंगे और मैं जो पीना चाहूंगा पिलाएंगे। पिताजी ने मेरी सारी शर्तें तुरंत मान ली थी, इसलिए मैं बिल्कुल राजा की तरह सफ़र कर रहा था पर मैं यह देखकर आश्चर्यचकित था कि पिताजी के अंदर किसी और की आत्मा तो नहीं आ गई थी क्योंकि वह मुझे भी किसी भी चीज में रोक-टोक नहीं रहे थे। खैर सफ़र बहुत ही मजेदार था। वहाँ की गाय, भैंस और यहाँ तक ही पक्षी भी मुझे रोमांचित कर रहे थे। अब तो मुझे याद नहीं है, पर इतना खुश तो शायद मैं उस समय भी नहीं हुआ होगा जब मैंने पहली बार चलना सीखा होगा।
जैसे ही बस रुकी, पिताजी बोले – “अब क्या कंडक्टर के साथ उसके घर जाने का इरादा है”?
मैं जैसे नींद से जागा। मैंने पिताजी के हाथ से बैग ले लिया और कोल्ड ड्रिंक की आधी भरी बोतल अपने थैले में रख ली।
पिताजी हँसते हुए बोले – “अरे, क्यों जरा सी कोल्ड ड्रिंक को लादे चल रहा है, हम नई बोतल ले लेंगे”।
नहीं पिताजी, आपकी ये कृपा दृष्टि पता नहीं कब बंद हो जाए और जिस दानी पुरुष की आत्मा आपके अंदर घुसी है कब बाहर निकल जाए कोई भरोसा नहीं, इसलिए मैं जितना इन लम्हों को जी लूँ मुझे जी लेने दीजिए।
पिताजी ने कुछ गुस्से से मुझे देखा पर फ़िर बिना कुछ कहे अपना काला हेंड बैग संभाले बस से उतर गए। पीछे-पीछे मैं लद्दू घोड़ा सा आधा गिरता पड़ता उनसे बोला – “पिताजी, मुझे पता है कि आप कुली नहीं करेंगे पर मुझसे ये सब उठाया नहीं जा रहा है”।
“इतना लम्बा चौड़ा और हट्टा कट्टा नज़र आने के बाद भी अंदर से केले की तरह पिलपिला है तू”।
“क्या करुँ पिताजी, सारा बचपन और जवानी तो आपके चावल के दाने ढूंढने में ही बीत गई। मुझे भी अगर थोड़ा समय मिला होता तो डोले शोले बना लेता”।
“देख रहा हूँ बहुत लम्बी ज़ुबान हो गई है तेरी”।
हाँ, पिताजी, किसी महान दार्शनिक ने कहा भी है, कि किसी भी व्यक्ति को जानने के लिए उसके साथ एक बार लम्बा सफ़र जरूर करना चाहिए। जुबान तो मेरे मुँह में हमेशा से थी पर आपने इसे लपेट कर इसके ऊपर रबड़बैंड जो बाँध दिया था।
हा हा हा… पिताजी जोर से ठहाका मार कर हँस पड़े और इशारे से एक कुली को बुलाकर बिना मोल-भाव करे ही उस पर सामान लदवा दिया।
हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत पेड़, ठंडी हवाएँ और चारों ओर बिखरी खूबसूरती को देख कर मेरा दिल खुश हो गया। ऑटो तय करने के बाद जब हम पिताजी ने एक आलिशान होटल के सामने उसे रूकने के लिए कहा तो मैं चौंक गया।
मैं झाँककर उस होटल के बगल में किसी सराय या सस्ते टाइप का होटल देखने लगा।
तभी पिताजी बोले – “इधर उधर मत देख, हम इसी होटल में आए है”।
मेरे गले से तो जैसे थूक भी निगला नहीं जा रहा था। आज तक लंगर या किसी बुलावे पर खाना खिलाने के अलावा पिताजी ने हम लोगो को किसी मामूली से होटल में भी ले जाकर कुछ नहीं खिलाया था। मुझे अच्छे से याद है, जब मौसी की शादी हुई थी तो उन्होंने ही आने जाने का टिकट और कुछ रुपये भेजे थे तभी पिताजी हमें उस शादी में ले गए थे, वरना शादी का इनविटेशन कार्ड देखते ही उन्होंने ऐसी त्योरियाँ चढ़ा ली थी कि घर भर में उनसे कोई बात करने की हिम्मत ना कर सके। मुंबई में माँ का भेल पूरी खाने का बहुत मन था पर उसकी खट्टी और मीठी चटनी पर ढेरो उपदेश देकर वो उन्हें लगभग घसीटते हुए वहाँ से ले गए थे। कितना चिढ़ा था मैं पिताजी से उस समय…
और आज वही पिताजी उसे इस भव्य होटल में लेकर आए है, ऐसा होटल तो मैंने कभी अपने सपने में भी नहीं देखा था। जिसके अंदर जाने के नाम से ही मेरे पैरों में एक अजीब तरह का कंपन शुरू हो गया था।
मैं मंत्रमुग्ध सा उनके पीछे चलने लगा।
दरवाज़े के पास पहुँचते ही दोनों गार्डों ने हमें सेल्यूट मारा और मैंने भी अचकचाकर उन्हें अपने बाएँ हाथ से सेल्यूट मार दिया। दोनों ही गार्ड मुस्कुराकर रह गए पर पिताजी धीरे से बोले – “अपने हाथ पैर काबू में रख नालायक”।
स्वर्ग शायद ऐसा ही होता होगा… होटल के अंदर पहुंचकर मेरे मुँह से निकला।
सजे धजे खूबसूरत लोग, एक कोने में नीली रौशनी में बहता फ़व्वारा, असली फ़व्वारें को भी मात दे रहा था। चारों तरफ फूलों की सजावट ऐसे लग रही थी मानों हम किसी खूबसूरत बगीचे में आ गए हो।
रंगीन जलती बुझती झालर कोने में सुशोभित, एक बड़े से पीतल के गुलदस्तें की सुंदरता में चार चाँद लगा रही थी। मेरी सोच और मेरे शब्द आज वहाँ की भव्यता और कलात्मकता के आगे जैसे खत्म हो गए थे। पिताजी ने किसी से बातचीत करी और उसने एक आदमी को इशारा किया। हाथ बाँधे उस आदमी ने बड़े ही अदब से हमारा अभिवादन किया और हमें एक आलिशान कमरें में ले गया।
उस के कमरे से बाहर जाते ही मैं बच्चों की तरह गद्दे पर उछलने लगा।
पिताजी ने डाँटा – “क्या पागलों की तरह हरकतें कर रहा है तू”?
पर मैं तो जैसे अपनी ही धुन में खोया हुआ था।
“पिताजी करने दीजिए ना, रूई के मोटे गद्दों में लेटकर कभी पता ही नहीं चला कि ज़मीन पर सो रहे है या गद्दे पर”।
“और ये… ये तो ऐसे लग रहे है मानों मैं बादलों में उड़ रहा हूँ। आप भी एक बार उड़ कर… मेरा मतलब… इन पर बैठकर देखिये ना…”
“नालायक… पागल हो गया है तू… अकेले में ये बन्दर नाच कितना भी कर ले पर औरों के सामने अपनी जाहिलियत उजागर मत होने देना”।
पर मुझे तो ना उनकी कोई बात बुरी लग रही थी और ना ही वो। ज़िंदगी में पहली बार मुलायम रेशमी तकियों और हँस के पंखों सी सफ़ेद चादर ने मुझे कब नींद के आगोश में ले लिया, मैं जान ही नहीं सका।
शाम को जब मेरी आँख खुली तो पिताजी आराम से बैठकर किसी पत्रिका के पन्नें पलट रहे थे। मुझे बिस्तर पर बैठते हुए देखकर बोले – ” अमीरों के भी जलवे होते है बिटवा। चार पन्नों की किताब पूरे तीन सौ रुपये की… इतने में तो पूरे हफ्ते की साग-सब्जी आ जाए”।
मैं धीरे से बुदबुदाया – “और अगर आपके हाथ में हो तो पूरे एक महीने की आ जाए”।
पर अब भला मेरे पिताजी दुर्वासा ऋषि कहाँ रह गए थे सो मेरी बात को अनसुना करते हुए बोले – ” चलो अब नीचे चल कर नाश्ता करते हैं”।
भूख तो मुझे भी बहुत जोरो की लग रही थी, इसलिए फ़टाफ़ट तैयार होने के बाद हम रेस्टोरेंट में पहुंचे। हमारे सीढ़ी से उतरते ही एक आदमी हमारे पास आया। वो काले रंग के सूट बूट में इतना तैयार था, मानों किसी शादी में आया हो।
मैंने एक नज़र पिताजी के धोती कुर्ते पर डाली और दूसरी नज़र मेरी साधारण सी पीले रंग की शर्ट और सालों पुरानी घिसी हुई जींस पर। वो तो भला हो फैशन का, जो हर पुराने से पुराने फ़टे कपड़े को स्टाइल का नाम दे देता है वरना मुझ जैसे लोग कहाँ जाते।
वो आदमी हमें बड़े आदर के साथ एक कुर्सी के पास ले गया और उसने हमारे लिए कुर्सी खींची। उसके बाद उसने एक वेटर को इशारे से बुलाया। पिताजी के चेहरे से तो प्रसन्नता छुपाए नहीं छुप रही थी। तभी वेटर तेज क़दमों से हमारी ओर आया और हमारे आगे मैन्यू कार्ड रख दिया। पिताजी ने सरसरी निगाह से मेन्यू कार्ड देखा और पूछा – “क्या नाश्ता करोगे”।
चाय और कॉफी के पैसे देखकर ही मेरा गला सूख गया था। मैं पानी का एक घूँट पीकर धीरे से बोला – “पिताजी, अस्सी रुपये की चाय है” चलिए, बाहर कहीं खोमचे वाले के पास जाकर कुछ खा पी आते है”।
“चुप रह मूर्ख, क्यों इज्जत का फालूदा करने पर तुला है…” कहते हुए उन्होंने वेटर को दो चाय, दो प्लेट कटलेट, एक प्लेट सैंडविच और एक प्लेट पनीर पकौड़े का ऑर्डर दे दिया।
मैं इस बात से अनजान था कि इतने वर्षो तक पिताजी के साथ रहते-रहते उनके कुछ गुण मेरे अंदर भी आ गए थे। मैंने बैचेन होते हुए फ़िर कहा -“पिताजी, इस नाश्ते का कम से कम हज़ार के करीब बिल बनेगा”।
“तू क्यों चिंता करता है, 10,000 बनने दे” पिताजी मुस्कुराते हुए बोले।
तभी पिताजी ने पूछा – “वो लड़की कैसी लग रही है”? मैंने आसपास नजर दौड़ाई, पर सिवा कुछ चपटे और काले चेहरों के अलावा मुझे कुछ नज़र नहीं आया।
“कौन सी लड़की… मैंने आँखें फाड़-फाड़कर चारों ओर देखते हुए पूछा।
“अरे वही लड़की, जो मैनेजर के बगल में खड़ी है” पिताजी एक ओर देखते हुए बोले।
“पिता जी लगता है, आप अपना चश्मा घर भूल आए हैं, वो लड़की नहीं बल्कि अच्छी ख़ासी एक मोटी औरत है और उसकी नाक तो देखिये जरा… कितनी चपटी है… इसका तो जुखाम भी सर्रर्र से नीचे बह जाता होगा…” कहते हुए मैं जोरों से हँसने लगा।
पिताजी ने अपना चेहरा बहुत गंभीर बना लिया और मुझे गौर से देखते हुए कहा – “कोई औरत वौरत नहीं है… लड़की ही है वो”।
अब तक मैं मजाक के मूड में आ चुका था, इसलिए मुस्कुराते हुए बोला – “पिताजी, फ़िर तो आप भी लड़की ही हो”।
पिताजी मेरा हाथ दबाते हुए बोले – “अरे, बात को ज़रा समझाकर… यह होटल उसी का है। करोड़ों की संपत्ति की मालकिन है और वो भी अपने माता पिता की इकलौती संतान। ऐसे पाँच आलिशान होटल है उसके…”
पैसा शब्द जुड़ते ही किसी इंसान का कद अचानक कितना बड़ा हो जाता है यह मुझे उसी समय पता चला जब अचानक ही वह औरत मुझे बेहद ज़हीन और शालीन महिला लगने लगी थी। जिसकी नज़रों के सामने ना जाने कितने लोग हाथ बाँधे घूम रहे थे।
मेरे मुँह से निकला – “इसका पति कितना खुशकिस्मत होगा ना पिताजी”?
“अरे यह कुँवारी है। इसकी अभी तक शादी नहीं हुई है”।
“और पिताजी होगी भी भला कैसे… इतनी मोटी और काली भैंस से कौन करेगा शादी… कम से कम बत्तीस की तो है… और तीस से तो बिल्कुल भी कम नहीं है”।
“अरे तो क्या हुआ। तू कभी अमेरिका गया है, वहाँ तो 40 साल के बाद लोग जवान होते हैं” पिताजी मेरी बात को काटते हुए बोले।
मैंने थोड़ा चिड़चिड़ाते हुए कहा – “आप तो हाथ धोकर इस औरत के… मेरा मतलब है कि इस लड़की के पीछे ही पड़ गए हैं। रहने दीजिए उस खूबसूरत लड़की को वहाँ पर। उसकी बात मत करिए”।
“अरे कैसे उसकी बात नहीं करूँ। उसी के पीछे तो मैं तुझे इतनी दूर तक लेकर आया हूँ”।
“पर पिताजी उसके पीछे क्यों आए है हम दोनों”? मैंने आश्चर्य से पूछा।
“क्योंकि जो भी उस औरत से शादी करेगा, वह करोड़पति हो जाएगा”।
“तो पिताजी, आप ही कर लीजिए। आप करोड़पति हो जाएंगे तो मैं और माँ आराम से रहेंगे”।
“चुप रह नालायक! मैं तो आज कर लूँ, पर यहीं नहीं करेगी, क्योंकि वो तुझे पसंद कर चुकी है”।
“मुझे तो जैसे काठ मार गया और मेरे मुँह से आवाज ही निकलना बंद हो गई”।
मैंने पिताजी की तरफ़ देखा और मैं समझा कि वह मजाक कर रहे हैं। मैंने थूक गटकते हुए धीरे से पूछा – “मुझे कैसे पसंद कर चुकी है और हम लोग तो जब से यहाँ आए हैं, मैंने उसे पहली बार देखा है”।
“क्योंकि मैं तुम्हारी फोटो पहले ही उसे भेज चुका हूँ। जो हमारे पड़ोस वाले शर्मा जी है ना उनकी मुँह बोली बहन है। उन्हीं से पता चला कि इसको शादी करनी है। जब इसने तेरी फोटो पसंद कर ली, तो मैं तुझे यहाँ इससे मिलवाने ले आया”।
मैंने अपने सर के बाल नोचते हुए कहा – “पर पिताजी यह मुझसे कम से कम सात या आठ साल बड़ी है और कितनी बदसूरत है”।
“अरे पगले, सात-आठ साल क्या होता है कुछ नहीं होता। तू अपने को सात-आठ साल बड़ा समझ और जहाँ तक बदसूरती की बात है तो यह बेचारी यहाँ की सीधी सादी औरत है। इस को भला क्या पता होगा कि प्लास्टिक सर्जरी क्या होती है। तो तू उसको यहाँ से सीधा अमरीका ले जाना। अमरीका ही क्यों, मैं तो कहता हूँ, तू ग्लोब लेकर चलना और जर्मनी, फ़्राँस, ऑस्ट्रेलिया सब घूम आना। तेरे आने जाने के किराए और रहने सहित एक दिन की कमाई होगी इसके सारे होटल्स की। तुम लोग उसी दिन अमरीका जाकर वापस आ जाओगे।”
“पिताजी, आप समझते क्यों नहीं हैं। ये मेरे कहने के अनुसार क्यों चलेगी। चिल्लाएगी नहीं मुझ पर… कुछ कहेगी नहीं”?
“नहीं, नहीं… वो कुछ नहीं कहेगी”।
“अरे… पर पिताजी क्यों नहीं कहेगी कुछ?” मैंने कुछ गुस्से से कहा।
“कैसे कहेगी, ये तो बेचारी गूंगी है”।
“हे भगवान” कहते हुए मैंने अपना सिर पकड़ लिया और गुस्से से मेरा खून खौल गया।
“मैंने पहली बार अपने पिताजी के सामने ऊंची आवाज में लगभग चीखते हुए कहा – “आप पिता है या राक्षस… अपने इकलौते बेटे को बेच रहे हैं”?
लेकिन पिताजी पर तो जैसे कुछ असर ही नहीं हुआ।
वह चाय की चुस्की लेते हुए बोले – “पढाई लिखाई से तूने हमेशा जी चुराया इसलिए बड़ी मुश्किलों से आज तक किसी तरह पास होता चला आया है। मेहनत मजदूरी तेरे शरीर के बस की बात नहीं। अगर तू उससे शादी नहीं करेगा तो मैं तुझे अपनी जायदाद से फूटी कौड़ी भी नहीं दूँगा और मेरा तुझसे कोई संबंध नहीं रहेगा। अब तू साफ़-साफ़ बता दे कि तुझे राजा बनकर रहना है या भिखारी बनकर”।
मैंने भरपूर नज़रों से पिताजी की ओर देखा जो आराम से पनीर पकोड़ा कुतरते हुए मुझे देख रहे थे। अब मैंने उस औरत की तरफ़ नज़रें घुमाई। वो मुझे ही देख रही थी और मुझे अपनी ओर देखता देख वह धीमे से मुस्कुरा दी। मैं भी उसे देखकर मुस्कुरा दिया… भला भिखारी बनकर मैं कैसे रह सकता था।