स्वाद का आनंद – शहर से कुछ दूरी पर एक बड़े-से पार्क में नीम के बहुत अधिक पेड़ थे, जिन पर पंछियों के अलावा गिलहरियां भी रहती थीं। पार्क के बीच में नीम का एक बूढ़ा पेड़ था, जिसे सब दादा कहते थे।
उस पर एक गिलहरी रहती थी कम्मो। कम्मो का स्वभाव बहुत ही सौम्य था। उसकी गिटर-पिटर बूढ़े नीम को बहुत पसंद थी।
स्वाद का आनंद: गोविंद भारद्वाज
एक बार रविवार के दिन काफी चहल-पहल थी। बूढ़े नीम के नीचे लगे बैंच पर दो बच्चे अपनी मम्मी के साथ बैठे हुए मूंगफली और कोई छोटे-छोटे फल खा रहे थे। कम्मो की नजर उन पड़ी। उसी समय नीम दादा ने कहा, “कम्मो बेटा आज तो तुम्हें मूंगफली खाने को मिलेगी।”
“हां दादा… आज रविवार है, यहां आने वाले बच्चे खाने के लिए कुछ न कुछ लाते हैं, शायद चने भी मिल जाएं।” कम्मो ने पूंछ हिलाते हुए जवाब दिया।
कम्मो ने देखा कि बच्चों के हाथ से छूटकर मूंगफली के कुछ दाने और एकाध छोटे फल घास में गिर रहे थे। घास कुछ बड़ी और गहरी होने के कारण उन बच्चों को मूंगफली उठाने में परेशानी हो रही थी।
कम्मो तुरंत नीम से उतरी और झट वहां मूंगफली के दाने ढूंढने लगी। वह लपककर दोनों पंजों से उन्हें खाने लगी। पेट भर जाने पर वह दौड़-दौड़कर मूंगफली को अपने कोटर में लाकर रख रही थी।
अचानक उसके हाथ एक अजब-सा फल लगा। उसका स्वाद बड़ा मीठा था। ऐसा फल उसने कभी नहीं चखा था। वह उसे लेकर नीम दादा के पास पहुंच गई।
“दादा..दादा देखो.. आज मुझे बड़ा अनोखा फल मिला है जो खाने में बड़ा स्वादिष्ट है।” उसने फल दिखाते हुए कहा।
नीम दादा ने उसे देखा और हंसते हुए कहा, “कम्मो यह बेर है…।”
“बेर…? यह फल मैंने पहले कभी नहीं खाया।” कम्मो ने उछलते हुए कहा।
“दरअसल, इस पार्क में बेर का कोई पेड़ या झाड़ी नहीं है, वरना तुम जरूर चख लेती। यह या तो जंगल में मिलेगा या बेरों के बाग में।” नीम दादा ने बताया।
“क्या बेरों का बाग भी होता है?” कम्मो ने पूछा।
“हां क्यों नहीं… बेरों की अलग-अलग किस्म होती हैं, जिनका आकार और स्वाद भी अलग-अलग होता है।” नीम दादा ने कहा।
“क्या यह इस पार्क में नहीं उग सकता?” कम्मो गिलहरी ने पूछा।
“क्यों नहीं, तुम इस बेर के बीज यानी गुठली को अपने पास संभाल कर रख लो… मौका देखकर इसे कहीं एक कोने में बो देना।” नीम दादा ने कहा।
“इस बेर के बीज को बो देने से इसका पेड़ उग जाएगा?” कम्मो ने पूछा।
“क्यों नहीं उगेगा.. जब नीम के बीज से इतने बड़े-बड़े नीम उग गए, तो बेर का पेड़ क्यों नहीं उगेगा, परन्तु…।”
“परंतु क्या… तुम चुप क्यों हो गए?” कम्मो ने पूछा।
“दरअसल बात यह कि जिस बीज को तुम धरती में बोओगी, काफी दिनों बाद उससे पौधा अंकुरित होगा और उसे पेड़ बनने में दो-तीन साल लग जाएंगे। फिर कहीं जाकर बेर लगेंगे। शायद तुम इसके फल न खा सको।” नीम दादा ने जवाब दिया।
“तो फिर चलो हटो… कौन फालतू में इतनी मेहनत करे…।” कम्मो ने बेर के बीज को फैंकते हुए कहा।
“ठहरो… ठहरो कम्मो। इस बीज को फैंकने की गलती मत करना। क्या तुम नहीं चाहती कि तुम्हारी आने वाली पीढ़ी भी इस बेर का स्वाद चख सके।” नीम दादा ने उसे टोकते हुए पूछा।
“नहीं दादा, मैं ऐसा तो नहीं चाहती। इसका स्वाद तो मेरी पीढ़ियों को मिलना ही चाहिए।” कम्मो ने कहा।
“तो फिर इसे तुम जरूर लगाओ। तुम नहीं तो क्या… तुम्हारी आने वाली पीढ़ियां तो इसके फल का आनंद लेंगी और तुम्हें याद करेंगी। जैसे तुम आज मेरी निबोलियों का स्वाद ले रही हो… आम, जामुन का आनंद ले रही हो… यकीनन इन सबके पौधे या बीज तुम्हारे पूर्वजों ने लगाए होंगे। तुम्हारी जैसी सबकी सौच हो जाती तो आज जो फलों के पेड़ हैं, वे कहां से आते?” नीम दादा ने कहा।
“तुम सच कह रहे हो दादा। अब तो मैं बेर के इस बीज को ही नहीं, बल्कि अन्य फलों के बीज भी इस पार्क की खाली जगह में लगाऊंगी।” कम्मो ने पक्का इरादा करते हुए कहा।
“शाबाश कम्मो।” नीम दादा ने उसे हौसला देते हुए कहा।