लिखती भी कैसे… क्या लिखती… इंसान अपनी गलतियों को अँधेरे में भी नहीं सोचना चाहता। कई गलतियाँ तो मुझसे भी हुई, अनजाने में सही और कई बार माँ की बात नहीं मानते हुए डंके की चोट पर कुछ कर दिखाने के चक्कर में। कहाँ से कहाँ पहुँच गई मैं। बीती घटनाओं को याद करते ही रोंगटें खड़े हो जाते है। समझती रही कि मैं वक़्त को अपने हिसाब से चला रही हूँ। आसपास के लोग जो मेरी सुंदरता के कसीदे पढ़ा करते थे, उनके बीच इठला कर और अपनी अदाएँ दिखाकर खुद को मैंने कभी किसी फिल्म अभिनेत्री से कम नहीं आँका और आज इस जिद का नतीजा मेरे सामने है। गोरा, चिट्टा, घुँघराले सुनहरे बाल और नीली आँखों वाला मेरा बेटा सोमू, जिसके बाप का नाम सिर्फ़ मुझे पता है। ना तो मेरा बेटा जानता है कि उसका पिता इस दुनियाँ में है भी या नहीं और ना ही तीन साल की मासूम उम्र में उसे इतनी समझ है। पर घर के बाहर की देहरी से लेकर दीवार पर टंगे भारत के नक़्शे तक सबको उसके बाप का नाम जानने की उत्सुकता है। चाहे तीन बच्चे छोड़कर भागी हुई पड़ोस की श्यामा का पति हो, जो तंबाखू मसलते हुए उसे देखकर और जोर से ताली पीटकर भद्दी सी मुस्कान देता है या बगल के घर में रहने वाला छुटभैया नेता, जिसकी नज़र उसके चेहरे से उतरती हुई हमेशा गर्दन पर ठहर जाती है। ऐसा लगता है कि मेरे पति का नाम प्रतियोगी परीक्षाओं में पूछा जाएगा, तभी तो सभी के माँ बाप फ़ेंटा कसकर तैयार खड़े है, उनके भावी कर्णधारों को बताने के लिए। जब मुझे कोई उपाय ना सूझा तो मैंने अपनी चाची की बात पर अमल करना शुरू कर दिया, जिनका मानना था कि एक चुप हज़ार बलाएँ टालती है। इस बात पर कभी मैं अपनी सहेलियों के साथ हसँते-हँसते लोटपोट हो जाया करती थी, पर समय कई बार उन्हीं बातों पर हमें वापस चलना सिखाता हैं, जहाँ से हम बहुत तेज दौड़कर आगे निकल आते है। शायद हम ठीक से उस जगह पर चले ही नहीं थे या कदम ऐसे फ़िसले थे कि बहुत नीचे तक गिरने के बाद कुदरत ने हमें सही राह दिखाने के लिए वापस उसी जगह पर एक बार फ़िर पहुँचाया दिया होता है। कहते है इतिहास खुद को दोहराता है और यहाँ भी वहीँ बात चरितार्थ हुई। जिस चाची के साथ मैंने उनके जीवन के ढेर सारे अच्छे-बुरे अनुभव बाँटें… जिनके साथ मैं बहुत ही गंभीर भाव मुद्रा बनाकर बैठती तो ज़रूर थी पर मन ही मन उन पर हँसती थी, उनका मज़ाक उड़ाती थी और उनकी कही एक भी बात को अमल में लाने की कोशिश नहीं करती थी। मैं सोचती थी कि ये तो पुराने ज़माने की चिड़चिड़ी बुढ़िया हैं। इन्हें भला वो सब कहाँ पता हैं जो मुझे पता है। पर मेरी सोच गलत निकली। विज्ञान की तरक्की और नए उपकरणों को देखकर इंसान की सोच भी बदले, ये ज़रूरी नहीं। जैसे चाची के ज़माने में मर्द औरत को पैर की जूती बनाकर रखना चाहता था, वैसे ही आज भी। हाँ… अपवाद तो हर जगह होते है, वो चाची के समय में भी थे, पर औरत को बिस्तर पर उसकी औकात दिखाकर रौब गाँठने वाले किस्से सुनाकर दम्भ भरने वालों से शायद ही कोई गली अछूती हो। मैंने सोमू के पिता के नाम नहीं बताने के लिए धीरे-धीरे लोगो से कटना शुरू कर दिया। ना मैं किसी से बात करती और ना ही किसी को जबरदस्ती मेरे घर के सुराख़ का छेद और बड़ा करके घर के अँदर झाँकने का मौका देती।
क्योंकि किसी को नहीं पता है कि पीटर ने मुझे उसके नाम की कीमत पचास लाख रुपये के रूप में दी है, जो उसके नाम के साथ ही बैंक के लॉकर में महफूज़ रखी हुई है। इतनी बड़ी रकम के साथ ही मैंने मेरे बेटे के बाप का नाम दुनियाँ की नज़रों से छुपाकर एक तिजोरी में बंद करके रख दिया है।
आज अपने स्याह पड़े चेहरे और साँवली रंगत को देखकर आईने के सामने जाने का भी मन नहीं होता। पर समय ने ही मुझे ज़लील और बर्बाद किया है। कभी मैं भी सोमू जैसी ही धूप सी उजली और गोरी थी।
मैं जहाँ भी जाती थी, लोगों की निगाहें मुझ पर ही ठहर जाती थी, पर तब उम्र के तकाज़े के कारण मैं समझती थी कि वे सभी लोग मुझे बहुत प्यार करते हैं इसीलिए मेरी तरफ भरपूर निगाहों से देखते हैं। यह तो मेरी माँ ने मुझे बताया कि मैं बहुत सुंदर हूँ।
उसी ने मेरे दिमाग में भरा कि पढ़ाई लिखाई जैसी बातें मामूली और गैर जरूरी होती हैं अगर कुछ काम आता है तो वह है आकर्षक व्यक्तित्व और खूबसूरत चेहरा। मुझे आज भी याद है कि मेरी पतली दुबली माँ जब पीली साड़ी के साथ लो कट ब्लाउज़ पहन कर निकलती थी तो तेल लेने वाले बनिए की धार ना जाने कितनी बार बर्तन के बाहर गिर जाती थी। माँ खिलखिलाकर हँस देती और बनिया अपनी गन्दी सी बनियाइन ठीक करते हुए निहाल हो जाता। माँ की चपलता और उनके उन्मुक्त व्यवहार ने जैसे सभी को उनका दीवाना बना रखा था।
जब भी मैं अपनी कपड़ों से भरी अलमारी देखती हूँ तो ढेर सारे कपड़ों से ठसाठस होने के बाद भी मुझे लगता है कि मेरे पास कम कपड़े है तो मुझे माँ बहुत याद आती है। माँ के पास कभी बहुत सारे कपड़े नहीं रहे, पर चार जोड़ी कपड़ों को भी कैसे सलीके से रखा जा सकता है, यह उनसे बेहतर शायद कोई नहीं बता सकेगा। मैं जब भी उन्हें अकेले में बैठकर रोता देखती तो कुछ भी समझ ना पाती और उनके साथ ही रोने बैठ जाती। मेरे पूछने पर भी उन्होंने कभी कुछ नहीं बताया, बस अपनी साड़ी का पल्लू कानी ऊँगली में लपेट कर घुमाना शुरू कर देती और आसमान की ओर ताकने लगती।
अँधेरी रातों में भी वो ना जाने क्या सोचती रहती और घंटों उसी तरह बैठी रहती। मैं थककर उनकी गोद में वहीँ पसर जाती और अगली सुबह जब मेरी आँख खुलती तो माँ हमेशा की तरह हँसते-मुस्कुराते हुए फुर्ती से घर के काम निपटा रही होती।
आईने के अंदर झाँकने पर पता चलता है कि समय कितनी तेजी से बीतता है, वरना पल, घंटे और दिन तो जैसे सरकते ही नहीं… घड़ी की सुइयों के साथ मेरी लापरवाह उम्र भी कई बाँध तोड़कर मतवाली हवा की तरह चल पड़ी। धीरे ही सही, पर पहुँच गई मैं अपने सोलह वर्ष में, जब मैं किताबों के अंदर सिर झुकाकर माथा पच्ची कर रही होती तो माँ आकर समझाती – “गुड़िया रानी, ज़्यादा पढ़ोगी तो आँखों के नीचे काले घेरे पड़ जाएँगे। जरा घूम-फिर भी आया करो सामने वाले घर में जाकर”।
यह कहकर माँ ठहाका लगाकर हँसती और मैं शरमा कर नजरें झुका लेती।
सामने वाले घर का इशारा मैं खूब समझती थी। वो घर मेरी सहेली मंजूषा का था, जिसका सफ़ेद रंग का बहुत खूबसूरत सा मकान था। घर बहुत बड़ा तो नहीं था पर उसकी मम्मी ने बड़े ही सलीके से घर को सजा रखा था। दरवाज़े से ही रंगबिरंगे झाँकते फूल और दीवार तक इतराकर चलती मालती के फूलों से लदे गुच्छे, जैसे मन मोह लेते। मंजूषा के घर में सभी लोग काले-कलूटे थे। कई बार बैंगन की सब्जी खाते वक्त मुझे उसके परिवार वाले याद आ जाते। उसका भाई भी काला कलूटा था पर उनके पास बहुत पैसा था, शायद इसीलिए हमेशा गोरे रँग और सुँदरता की बात करने वाली मेरी माँ उन लोगों पर पूरी तरह से लट्टू थी। पर यहाँ पर माँ की दाल इसलिए नहीं गल पा रही थी क्योंकि मंजुषा के पिता का देहांत कई बरस पहले ही हो चुका था। सुना था कि वह बहुत बड़े व्यापारी थे और अपने पीछे बेहिसाब धन दौलत छोड़ गए थे। पर मंजुषा की माँ इस बात को दुनिया के सामने राज़ ही रखना चाहती थी, इसलिए वह हमेशा हल्के रंग की साधारण सूती साड़ी पहनती और बच्चों को भी बिल्कुल साधारण तरीके से रखती। मंजूषा के भाई को तो मुझे ताकने के अलावा कोई और काम ही नहीं था।
भगवान जाने वह मरगिल्ला सा कार्टून करैक्टर सा दिखने वाला प्राणी इतने बड़े ख़्वाब कैसे देख रहा था। वो लुप्त हो चुकी डायनासौर की प्रजाति की मोटी छिपकली सा दिखने वाला कलूटा, मुझ जैसी लड़की से दोस्ती करना चाहता था, जिसके पीछे शहर के एक से एक स्मार्ट लड़के पड़े हुए थे। मुझे तो उसके भाई को देखकर ही मन करता था कि अपनी नीली बद्दी वाली चप्पल खींचकर उसके मुँह पर मार दूँ। कम-से-कम उसके अजीब से चेहरे पर चप्पल पड़ते ही जब उसका चौकौर काले फ्रेम का चश्मा टूटेगा तो कुछ दिन वह मुझे देख नहीं पाएगा। उसका नाम भी बहुत ही अजीबोगरीब था। शक्ल से भी ज़्यादा, “निबलू”… भगवान जाने नींबू से मिलता जुलता नाम उसके घरवालों ने कहाँ से रख लिया था। पहले तो मुझे लगता था कि शायद नींबू का की कोई पर्यायवाची है, जो उसकी बुद्धिमान सी दिखने वाली माँ ने रख दिया होगा। कम बोलने वालों के साथ हमेशा यह खुशकिस्मती रहती है कि लोग उन्हें अक्सर अकलमंद ही समझते हैं चाहे वे पूरे के पूरे “ढ” ढक्कन के हों और एक मैं हूँ जो दाँत फाड़-फाड़ कर हँसती रहती हूँ कि सामने वाला डायरी के खुले पन्नें पढ़ने में दो पल का भी समय नहीं लगाता।