अनकहा सच: नाजायज रिश्तों की जायज कहानी

अनकहा सच: नाजायज रिश्तों की जायज कहानी

मैं सन्न रह गई। ऐसा लगा जैसे कोई मुझे नुकीले पंजों से नोच रहा है। खुद को संभालने के लिए मैं वहीँ पलंग का कोना पकड़ कर खड़ी हो गई। पर तेरे पापा इस पर भी नहीं रुके, उन्होंने कहा, अगर तुझे लगता है कि तुझ जैसी काली कलूटी पर मैं मोहित हो गया तो बड़ी गलतफहमी में जी रही है तू आज तक। अरे, मेरे दोस्त से मेरी शर्त लगी थी पूरे दस लाख रुपये की। वो कह रहा था कि तुझे कोई पटा नहीं सकता। पूरे दस लाख नगद देने पड़े बेचारे को।

“अनिल मिश्रा पाँच साल तक तेरे पीछे लगा रहा, याद है तुझे”?

“मुझे मेरी क्लास का वो लड़का याद आ गया, जो सारे समय चश्मे के पीछे से मुझे घूरा करता था”।

“पर उसने तो मुझसे कभी कुछ नहीं कहा” मैंने हारे हुए सिपाही की तरह बोला।

“क्योंकि उसकी कभी हिम्मत नहीं पड़ी, मुझे उस शादी में ही पता चला था कि वह तुझसे प्यार करता है। पाँच साल में तूने उसको एक बार भी नहीं देखा, तो मैंने शर्त लगाई कि मैं तुझे दो घंटे में अपना बना कर दिखाऊंगा”।

“तो तुमने मुझे शर्त में जीता है…” कहते हुए मैं उनके आगे रोने लगी।

फ़िर भी मैंने अपने आँसूं पोंछते हुए कहा – “कोई बात नहीं, जो हो गया सो हो गया उसे सपना समझ कर भूल जाओ। अब तो मैं तुम्हारी पत्नी हूँ। यह तुम्हारा बच्चा है”।

तेरे पापा ठहाका लगते हुए बोले – “तुम जैसी बहुत पत्नी आई और बहुत पत्नी गई। मेरे बाबूजी को नहीं देखा है क्या, आज की तारीख़ में भी पच्चीस बरस से कम उम्र की औरत उनके कमरे में नहीं जाती है”।

मैं शर्म और अपमान से सिहर गई। अब मुझे समझ में आया कि माँ हमेशा चुप क्यों रहती थी।

हे भगवान… कहते हुए मैंने अपने कानों पर उँगलियाँ रख ली। रोते हुए मैं कमरे से बाहर भागी। सीढ़ियाँ उतरते समय मैंने माँ जी को देखा, जो रेलिंग पकड़े वहीं पर खड़ी थी। उनका आँसुओं से तर चेहरा और सूजी आँखें देखकर मैंने अपनी नजरें झुका ली। माँ जी ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे एक लाल रंग के कपड़े की पोटली थमाते हुए धीरे से बोली-“कोई ज़रूरत नहीं है, तुझे अपने बच्चे को गिराने के लिए। यहाँ से चली जा और एक नई जिंदगी बना। यह बच्चा तेरा भी है”। मैंने झुककर उनके पैर छुए और तीर की तरह दरवाज़े से बाहर निकल कर मैं सीधे तेरी नानी के यहाँ पहुंची।

घर में ताला लटका हुआ था। आस पड़ोस से पूछने पर पता चला कि तेरी नानी हरिद्वार निकल चुकी थी। बहुत खुश थी वो मेरी शादी के लिए। सारे देवी देवताओं को बधाई देने गई थी। आख़िर बरसों की साध जो पूरी हुई थी उनकी। मैं उनकी नादानी पर मुस्कुरा दी। पड़ोस वाले लड़के को बुला कर मैंने सड़क पर पड़े एक पत्थर से ताला तोड़ा और घर के अंदर गई। अंदर से कुंडी लगाकर मैंने पोटली खोली, तो उसमें ढेर सारे सोने के गहने चमचमा रहे थे और हजार रुपयों की एक मोटी सी गड्डी थी।

अपनी सासू माँ के लिए मेरे मन में भगवान से भी ज़्यादा इज्जत पैदा हो गई। पता नहीं देवी जैसी औरत के गर्भ में राक्षस कैसे आ गया था पर दूसरे ही पल जब उसके बाबूजी याद आए तो ये कोहरा भी मेरे मन से छंट गया। जब तेरी नानी कई दिन बाद लौटी तो मेरी हालत देखकर सदमा खा गई। मेरे लाख समझाने के बाद भी मेरे भाग्य का दोषी उन्होंने खुद को मान लिया और दिन रात मेरी चिंता में घुलने लगी। कुछ ही दिनों में उन्होंने खटिया पकड़ ली। मेरे पास कोई पूँजी तो थी नहीं, तो वही गहने बेच-बेचकर घर का खर्चा और उनकी दवाई करवाई। माँ की तबीयत इतनी खराब हो गई थी कि आधे से ज़्यादा गहने बिक गए। घर भी माँ ने मेरी शादी के लिए गिरवी रख दिया था, जो उन्होंने बताया नहीं था। घर छुड़वाना भी बहुत ज़रूरी था वरना मैं और माँ कहाँ जाकर रहते। मैंने माँ से कहा भी कि नया घर ले लेते हैं पर वो नहीं मानी। उनका कहना भी सही था। जिस घर में उन्हें पचास बरस हो रहे थे, वो घर अब वो कैसे छोड़ देती।

आस पड़ोस के लोग अब पड़ोसी ना होकर रिश्तेदार बन चुके थे। उन लोगों से दूर जाना मूर्खता होती। जब अपनों ने ही घर से बाहर फेंक दिया था, तो इन्हीं लोगों ने संभाला था। माँ के सुख दुख में सब एक पैर से खड़े थे। धीरे-धीरे समय बीता और मैंने एक जगह नौकरी कर ली। फिर तू गोद में आ गई और दिन जैसे पँख लगाकर उड़ने लगे। आज देख तेरे सामने खड़ी हूँ बिलकुल अकेली। कई रिश्ते आए, सब ने कहा शादी कर लो, पर एक बार आग में कूदने के बाद दुबारा हिम्मत ही नहीं पड़ी। तुझे देखकर मैं अपना सारा दुख भूल गई। बस अब तू ही है जिस पर मेरी सारी आशाएँ टिकी है इसलिए कह रही हूँ। मैंने सामने वाले निबलू की आँखों में प्यार देखा है। बहुत प्यार करता वो तुझसे। उसकी माँ भी अच्छी औरत है। थोड़ा स्पष्ट और कड़वा बोलती है, पर ऐसे लोग खतरनाक नहीं होते। तू मीठा बोलने वालों से हमेशा सावधान रहना। तुम निबलू से हाँ कर देना”।

मैंने पहली बार माँ के दर्द को समझा और उनका हाथ पकड़ते हुए कहा – “पर माँ, अभी तो मैं सिर्फ़ सोलह साल की हूँ और आगे पढ़ना चाहती हूँ”।

“मैं अभी नहीं कर दूँगी तेरी शादी, बस तू उसको मना मत करना। मैं रोका करवा दूँगी। उसके बाद शादी तो होती ही रहेगी। पर बीच में तेरे कदम कहीं फ़िसल ना जाए। कहीं तुझसे वो गलती ना हो जाए जो मुझसे हुई”।

“नहीं, माँ तुम निश्चिंत रहो। ऐसा कुछ नहीं होगा”।

कहने को तो मैंने माँ से कह दिया पर अचानक ही दो साल बाद कॉलेज पहुँचने पर मुझे एक लड़का मिला। उसके सुनहरे घुंघराले बाल और नीली आँखें देखते ही जैसे मैं अपनी सुध बुध खो बैठी। वह मुझे देख कर धीरे से मुस्कुराया और मैं इतना खुश हो गई कि उसकी मुस्कराहट को दिन में कई बार सोचकर हँसती रही। दिन भर में कई बार अकेले में उसे सोचना और गुनगुनाना मुझे अच्छा लगने लगा। धीरे-धीरे हम लोगों की बातचीत होने लगी। उसने मुझसे कहा कि वह मेरे बिना नहीं रह सकता। वो सिडनी से आया था, हिंदुस्तान घूमने और हमारे कॉलेज से प्राचीन इतिहास की कुछ जानकारी लेने।

वो फ़ोन पर आधी-आधी रात तक कसमें खाकर, मुझे उसके साथ सात समंदर पर ले जाने की बात करता और मैं उसके सपनों में खोई रहती। इसी बीच निबलू ने एक दिन हम लोगो को कॉलेज के एक कोने में आपत्तिजनक हालात में देख लिया। ना वो चीखा ना चिल्लाया और ना ही उसने कुछ कहा, बस वो चुपचाप सिर झुकाकर वहाँ से चला गया। माँ ने कई बार मुझसे निबलू के बारे में पूछने की कोशिश की पर मैं टाल गई। एक दिन कॉलेज जाने से पहले मुझे उल्टियाँ शुरू हो गई। मुझे लगा, माँ मुझे पानी देंगी, मेरी पीठ थपथपाएँगी पर माँ को तो जैसे काठ मार गया था। वो बस सूनी आँखों से मुझे देखती रही। मैंने माँ को जाकर झिंझोड़ा और उनके पैरों में गिर पड़ी। मैंने माफ़ी माँगने में बहुत देर कर दी थी। माँ का सर एक ओर लुढक़ चुका था। वो हमेशा के लिए मुझे छोड़ कर जा चुकी थी, मेरी दुनियाँ उजाड़ करके। पता नहीं कैसे आस पड़ोस के सब लोग आए और माँ को ले गए। कई दिनों तक तो मुझे कोई होश नहीं था, निबलू अब छत पर नहीं आता था। मैं कॉलेज से पीटर के घर का पता लेकर गई तो पता चला कि उसकी सगाई भी हो चुकी थी।

मैंने रो-रोकर उसके घरवालों को अपनी बात सुनाई। पर उसके घर जाकर मुझे पता चला कि ना तो पीटर मुझसे प्यार करता था और ना ही उसे मुझसे सहानभूति थी। पर उसके पापा को लगा कि अगर पीटर मेरे केस में फँस जाएगा तो कभी वापस ऑस्ट्रेलिया नहीं जा पाएगा और जेल में ही उसका आधा जीवन बीत जाएगा। पैसा बहुत था उनके पास, इसलिए तुरंत मुझे पचास लाख रुपये देने की बात करते हुए पीटर को छोड़ देने की विनती करने लगे। मैंने पीटर की तरफ़ देखा जो गुस्से में मुझे देखकर थूक रहा था। मैंने पैसों के लिए हाँ कर दी और घर आ गई। दूसरे दिन एक बैग भरकर मेरे पास पैसे आ गए। कहते है इतिहास खुद को दोहराता है, पर ऐसे दोहराएगा, मुझे पता नहीं था। आज मैं अपने बेटे सोमू के साथ वैसे ही अकेले रहती हूँ, जैसे कभी मेरी माँ मुझे लेकर रहती थी…

मंजरी शुक्ला

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