खाली कमरा - ज्ञान प्रकाश विवेक

खाली कमरा – ज्ञान प्रकाश विवेक

कमरा और मैं एक साथ पुराने हुए। कमरा जब नया लगता था, तब मैं भी जवानी की दहलीज पर कदम रख रहा था। पता नहीं कब और कैसे, कमरा मेरा दोस्त बनता चला गया। कमरा जितना पुराना होता गया, उतना ज्यादा मुझे अपना लगने लगा। जैसे कमरा न हो, मेरा चेहरा हो।

घर के बाकी सब जन अपने कमरों में या फिर आंगन में होते। मैं इस कमरे में …अकेला। चुप। उदास। खुश। गुनगुनाता। कभी-कभी सीटी बजाता हुआ मैं। लोग कहते हैं खामोशी एक जुबान होती है। मैं कहता हूं, खामोशी किसी संगीत की तरह होती है। मेरे कमरे में खामोशी का संगीत भरा रहता।

कमरा खूबसूरत नहीं था। लेकिन मुझे अच्छा लगता था। कभी-कभी यूं भी लगता जैसे कमरे की दीवारें मुझे ताक रही हैं। कमरे की दीवारें किसी अंजान भाषा में बोलती प्रतीत होतीं। मैं उखड़े हुए पलस्तर और सीलन को एकसाथ देखता। अजीब-सी आकृतियां बनती हुई नजर आतीं।

मेरे घर के लोगों को यही चीजें खराब लगतीं—उखड़ा हुआ पलस्तर, सीलन और घिसा हुआ फर्श। मैं इन चीजों में आकृतियां तलाश करता। हमारा मकान बड़ा था और बूढ़ा भी। बुढ़ापे के निशान बहुत सारी चीजों पर नजर आते — इस कमरे पर भी, जो मेरा था। अजीब बात है, वक्त के हाथ तारीखों से खेलते रहते हैं। कैलेंडरों को पुराना करते रहते हैं और हर शै पर उम्र के निशान छोड़ जाते हैं।

ईंट-गारे के मकान अपनी उम्र का रोना जल्दी रोने लगते हैं, जैसे कि हमारा मकान। बंटवारे के बाद पिता यहां आकर बस गये। मकान तब भी पुराना था। मकान को देखकर यूं लगता था, पिता जैसे किसी पुराने इनसान का इंतजार कर रहा है।

मकान किसी अहमद बख्श का था। मकान के भीतर जो घर होता है, उसको छोड़ना आसान नहीं होता। वह किसी बच्चे की तरह लिपट जाता है। घर छोड़ते वक्त अजीब-सी उदासी आंखों में तैरने लगती है। विस्थापित लोग शायद इसलिए कभी खुलकर नहीं हंसते। पिता की आंखों में वही उदासी की तहरीर थी और शायद अहमद बख्श की आंखों में भी रही हो।

अहमद बख्श के इस मकान में सांय-सांय करता सन्नाटा था। कोने में पड़ी पुरानी झाड़ू थी। खूंटी पर टंगा पुराना छाज था। पुराने लोग, पुरानी चीजों से इसी तरह बंधे रहते थे। अहमद बख्श ने आखिरी बार बड़ी हसरत से अपनी मकान को देखा हो… शायद छतरी को भी, जो खूंटी पर टंगी थी। वह तो सब ठीक… लेकिन एक कमरे में मेज भी पड़ी रह गयी और उस पर तीन किताबें भी। …मेज का एक कोना टूटा हुआ था। इसके बावजूद मेज अच्छी लगती थी। बाद में इस मेज को मैंने अपने कमरे में रख लिया था और किताबें पिता ने रख ली थीं।

वैसे अहमद बख्श जाते वक्त घर का सारा सामान ले गया तो फिर मेज और मेज पर बड़ी तीन किताबें क्यों छोड़ गया? मुझे लगता है वह मेज और किताबें जानबूझकर छोड़ गया कि बच्चे अपनी किताबें इस मेज पर रखें और इल्म हासिल करें।

पिता को पढ़ने-लिखने का जौक-शौक था। तीन किताबें जो दयाचंद नसीम की बुलबकावली, मीर अम्मान की बागो-हार तथा गालिब का दीवान था, पिता के लिए नायाब किताबें थीं। पिता गालिब का दीवान खोलते। बड़ी रंजीदा आवाज में शेर पढ़ते—कावे-कावे सख्त जाना, मेरी तन्हाई न पूछ…

मैं जब बड़ा हुआ और टूटी हुई मेज को मैंने अपने कमरे में लाकर रखा तो पिता ने न जाने क्या सोचते हुए कहा, ‘बरखुर्दार, ये मेज अहमद बख्श साहब की है। क्या मालूम वो इसे बतौर निशानी छोड़ गये हों… तुम इसे हिफाजत से रखना।’

मैंने अहमद बख्श को नहीं देखा था। मेरे पिता ने भी नहीं देखा था। मैं बंटवारे के कुछ साल बाद पैदा हुआ। लेकिन मैंने बख्श साहब की आकृति गढ़ ली थी। मुझे लगता था, वे भी कमोबेश मेरे पिता जैसे होंगे—सीधे-सादे। सरल। मैं कमरे में देख रहा हूं और इस टूटी हुई मेज को भी। बंटवारे के बाद आज दुनिया बहुत बदल चुकी है। बदलने को हम भी बहुत बदल चुके हैं, लेकिन मेज नहीं बदली। थोड़ा हिलने लगी है। जैसे बहुत बूढ़ा इनसान अपनी काया को संभालने के बावजूद, नहीं संभाल पाता।

हम इस मकान में पिछले पचपन साल से रह रहे थे। जब मैं बारह का और मेरा छोटा भाई दस बरस का था, तो पिता ने खाली पड़े आंगन में दो कमरे और बीच में ड्योढ़ी बनवायी थी।

हम चार भाई थे। चार नहीं, पांच। बंटवारे के दौरान मां की अंगुली पकड़कर चलते एक बच्चे की अंगुली छूट गयी। वह कहीं पीछे रह गया। बदहवासी। मारकाट। खौफ। हौलनाक मंजर और अपनी मां से एक बच्चे की छूट गयी अंगुली। …वह बच्चा मां की अंगुली फिर कभी न पकड़ सका और मां अपने बच्चे यानी हमारे सबसे बड़े भाई के छूट गये हाथ को कभी न भूल पायी… मरते दम तक वह उसे याद कर रो पड़ती। मां इसी दुख को लेकर चल बसी।

मां की अपनी दुनिया थी। वह चुप रहती। कम बोलती। ‘जपुजी’ पढ़ती रहती। कोई उसके पास से गुजरता तो मुस्कराकर देखती। …मौत जब उसके पास से गुजरी होगी तो मां ने शायद मौत को भी मुस्कराकर देखा हो…।

पिता सुबह चार या पौने चार बजे उठते। उनकी खटपट शुरू हो जाती। वे आंगन में चलते। उनकी चप्पल से फचाक‍््-फचाक‍् की आवाज आती। एक पुराना आदमी अल-सुबह, रोज नयी आवाजें पैदा करता। पूरा घर सोया होता। पिता रिटायर्ड थे। उन्हें कहीं नहीं जाना होता था। यह बात बड़ी विचित्र थी, जिसे कहीं नहीं जाना होता था, वही इनसान सबसे पहले उठता। मुझे ऐसा लगता है पिता को, सुबह के रुख्सत होते सितारे देखने का शौक था या फिर सूरज की पहली किरण का, जो बड़े इत्मीनान से हमारे घर की छत पर उतरती। वह अकेली नहीं आती थी। उसके साथ चिडि़यां आती, कबूतर आते… कौवे आते। कभी-कभी छत पर भूले-भटके मोर भी आ बैठते। लेकिन बाद में हम भाइयों के कमरों में टीवी चैनलों की बनावटी आवाजें जरूरी हो गयीं। रेडियो का एफएम जरूरी जो गया।

About Gyan Prakash Vivek

आठवें दशक के उत्तरार्ध में उभरे ज्ञानप्रकाश विवेक आधुनिक युग लोकप्रिय व बहुचर्चित रचनाकारों में से हैं। हिन्दी ग़ज़लों के क्षेत्र में उनका नाम दुश्यंत कुमार के साथ लिया जाता है। कहानियों के क्षेत्र में भी उन्होंने काम किया है और भारतीय पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से प्रकाशित होते रहे हैं। आपके दो ग़ज़ल संग्रह व एक कहानी संग्रह प्रकाशित हो चुके है।

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