मेरा छोटा भाई हिम्मतवाला था। मुझे रोता देखकर बोला, ‘ओए भापे, पानी के लिए रोता है? …धरती का पानी था, धरती पी गयी। चल उठा बाल्टियां, एक-एक गेड़ा और मारते हैं।’
जोहड़ से पानी भरकर बाल्टियां उठाना, हांफते हुए घर तक आना, फिर दीवारों की तराई करना, मुझे अब भी याद है। पैंतीस-चालीस वर्ष पुरानी बात, किसी दृश्य की तरह मेरी स्मृतियां में मौजूद है। जोहड़ से पानी लाते हुए मैंने कभी सोचा भी न था कि जिस मकान को पानी से सींच रहा हूं, उसे एक दिन छोड़कर चला जाऊंगा।
मैं अपने कमरे की खुद सफेदी करता। मेरे साथ मेरा छोटा भाई होता। हम चूना और डिस्टेम्पर तो खरीदते, एक बीड़ी का बंडल भी खरीद लाते। दीवार की पुताई के बाद कमरे के दरवाजे बंद कर देते और बीड़ी के सुट्टे मारते। मां गुड़ खाने के लिए देती कि गले में बैठी गर्द उतर जाये। लेकिन हम बीड़ी के सुट्टे से उस गर्द को गले के नीचे उतारते।
कमरे के साथ हजारों यादें जुड़ी हैं। कमरे के साथ ही नहीं, इस पुराने… कदीमी मकान के साथ भी। मैं चला जाऊंगा। सब पीछे छूट जाएगा। जीवन्त नाटक का बेलज्जत अन्त।
गर्मियों में हम भाई-बहन छत पर सोते। नये मकान की नयी और खुली छत। खुली लम्बी छत पर हम सब एक कतार में, दूर तक पसर जाते। हम छत पर पानी का छिड़काव करते। रात के वक्त स्टोर से बिस्तर, चादर-चटाई, दरी, जो कुछ मिलता, उठा लाते। छत पर बिछाते। चांद को देखते। सितारों की मण्डलियों को देखते। देखते-देखते सो जाते। सोने से पहले हम चुटकुले सुनाते। खूब हंसते। तब हमें खुलकर हंसना आता था। अब नहीं आता। पता नहीं वो हंसी कब और कहां गुम हुई।
हमारे पास एक ट्रांजिस्टर था जिसे हम छत पर उठा लाते। चलते-चलते बंद हो जाता। हम उसे थप्पड़ मारते। वो चल पड़ता। ट्रांजिस्टर चलता रहता। हम चांद-सितारे देखते, चुटकुले सुनाते, खूब हंसते हुए—कब्बन मिर्जा की आवाज का इंतजार करते। साढ़े दस बजे रात की आखिरी सभा समाप्त होती। रेडियो से कब्बन मिर्जा की भारी-भरकम लोचभरी आवाज उभरती। वो शब-बा-खैर कहते। रेडियो बंद हो जाता। जिंदगी के आखिरी दिनों में कब्बन मिर्जा अपनी जुबान गुम कर बैठे।
जिंदगी में अकसर ऐसा ही होता है। सबसे प्यारी चीज सबसे पहले छूटती है जैसे कि यह मेरा घर! मेरा प्यारा घर! …मेरी यादों का सरमाया… मेरे पुराने वक्तों की एलबम! घर… मेरा प्यारा घर…! कमरा मेरा अपना। कमरा, जैसे मेरी छोटी-सी दुनिया। कोई छोटा-सा कोना। मुझे सुरक्षा प्रदान करता। मुझे अपने भीतर छुपाता मेरा कमरा… जैसे मेरी मां की गोद! कमरा खाली है। पर खाली है नहीं। सिर्फ नजर आता है खाली। …कमरे से मैं जब अपना सामान निकाल रहा था, यादें अपना सामान भर रही थीं।
पिता आये हैं, बे-आवाज। पहले वे सारी आवाजों के साथ आते। आज पिता चुपचाप आये हैं। जैसे आवाजों की गठरी कहीं पीछे छूट गयी हो। गहरी चुप के साथ खड़े हैं—मुझे देखते से। जैसे पहली और आखिरी बार देख रहे हों। वे मुझे जी-भरकर देखना चाहते हैं। जैसे बाप अपने बेटे को देखता है हसरत से। उम्मीदों और आकांक्षाओं के साथ।
मेरे पिता के पास अलफाज का जखीरा है। लेकिन आज वे लफ्जों की दुनिया से जैसे बेदखल हो चुके हों। वे ऐसे खड़े हैं जैसे कोई चुपजदा पिरामिड। वे खाली कमरे को देख रहे हैं और मुझे भी। ऐसा लगता है, वे रिश्तों के किसी बंजर प्रदेश को देख रहे हैं।
‘मैं आता रहूंगा बाऊज।’ मैं रुककर कहता हूं।
‘तुम्हारा अपना घर है। …जब दिल करे आना।’ उनके शब्दों में पहले जैसी गरमी नहीं।
‘मैं इसलिए जा रहा हूं बाऊजी…।’ मैं कहते-कहते रुक जाता हूं। वे मुझे देखते हैं।
मैं बात पूरी करता हूं… ‘इसलिए कि जगह कम थी।’
‘जगह कम नहीं थी… दिल तंग थे।’ वे कहते हैं। कहते हुए कमरे से बाहर निकलते हैं।
पिता के चले जाने के बाद भाइयों के बच्चे आये हैं। वे एक साथ कहते हैं, ‘बड़े पापा, आप यहां से चले जाओगे?’
इतने मासूम सवाल को मैं पचा नहीं पाता। आंखें डबडबा जाती हैं। दोनों बच्चे अपनी हथेली पर कुछ रखकर खड़े हैं। एक की हथेली पर एलपेनलिबे हैं और दूसरे के हाथ पर कॉफी-बाइट।
मैं जब इस कमरे में रहता था तो बच्चे मेरे पास आ बैठते। मैं सबको एक-एक एलपेनलिबे देता। वह हमारी स्वीट पार्टी होती। आज बच्चे मुझे स्वीट पार्टी दे रहे थे। वे उदास थे, मैं भी। कमरे का दरवाजा बंद करके ताला लगाने लगता हूं कि बच्चे हैरान होकर सवाल करते हैं, ‘बड़े पापाजी, खाली कमरे को ताला लगा रहे हो?’
मेरे हाथ जम-से जाते हैं। शर्म-सी आती है मुझे अपने आप पर। चोर नजरों से बच्चों को देखता हूं। बंद किया दरवाजा खोलता हूं। खाली कमरे के बाहर खड़ा मैं गुजरे समय की अनुगूंज सुन रहा हूं। पिता की घिसी हुई चप्पल की आवाज… हैंडपंप की आवाज… आइस-पाइस खेलते और मेरे कमरे में आकर छुपते बच्चों की आवाज। सबसे बढ़कर इस घर में जो जीवन्तता थी, उसकी आवाज…
इस घर को छोड़कर मैं जा रहा हूं। आवाजें मेरा पीछा कर रही हैं।