हमारा देश: सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ इन्ही तृण – फूस – छप्पर से ढके ढुलमुल गँवारू झोंपड़ों में ही हमारा देश बस्ता है। इन्ही के ढोल – मादल – बांसुरी के उमगते सुर में हुनरी साधना का रस बस्ता है। इन्ही के मर्म को अनजान शहरों की ढकी लोलुप विषैली वासना का सांप डंसता है। इन्ही में लहराती अल्हड़ अपनी …
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